गुरु भक्त काम्बोज ऋषि उपमन्यु


गुरु भक्त काम्बोज ऋषि उपमन्यु

उपमन्यु एक ऋग्वैदिक ऋषि का नाम है। उन्हें ऋषि काम्बोज औपमन्यव के पिता या पूर्वज कहा जाता है, जो साम वेद के वंशब्राह्मण (1.18) में वर्णित हैं। इसका स्पष्ट निर्देश वंशब्राह्मण के उस उल्लेख से होता है जिसमें काम्बोज औपमन्यव नामक आचार्य का प्रसंग है। यह आचार्य उपमन्यु गोत्र में उत्पन्न, मद्रगार के शष्य और काम्बोज देश के निवासी थे। कीथ का अनुमान है कि इस प्रसंग में वर्णित औपमन्यव काम्बोज और उनके गुरु मद्रगार के नामों से उत्तरमद्र और काम्बोज देशों के सन्निकट संबंध का आभास मिलता है। पालि ग्रंथ मज्झिमनिकाय से भी काम्बोज में आर्य संस्कृति की विद्यमानता के बारे में सूचना मिलती है। ऋषि उपमन्यु शिव-भक्तों के बीच एक अत्यधिक ऊंचा स्थान रखते थे। उनकी कहानी शिव पुराण के उमा संहिता में संबंधित है।

महर्षि आयोद धौम्य अपनी विद्या, तपस्या और विचित्र उदारता के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं। वे ऊपर से तो अपने शिष्यों से बहुत कठोरता करते प्रतीत होते हैं, किन्तु भीतर से शिष्यों पर उनका अपार स्नेह था। वे अपने शिष्यों को अत्यंत सुयोग्य बनाना चाहते थे। इसलिए जो ज्ञान के सच्चे जिज्ञासु थे, वे महर्षि के पास बड़ी श्रद्धा से रहते थे। उपमन्यु महर्षि आयोद धौम्य के शिष्यों में से एक थे। इनके गुरु धौम्य ने उपमन्यु को अपनी गाएं चराने का काम दे रखा थ। उपमन्यु दिनभर वन में गाएं चराते और सायँकाल आश्रम में लौट आया करते थे।

एक दिन गुरुदेव ने पूछा- "बेटा उपमन्यु! तुम आजकल भोजन क्या करते हो?" उपमन्यु ने नम्रता से कहा- "भगवान! मैं भिक्षा माँगकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "वत्स! ब्रह्मचारी को इस प्रकार भिक्षा का अन्न नहीं खाना चाहिए। भिक्षा माँगकर जो कुछ मिले, उसे गुरु के सामने रख देना चाहिए। उसमें से गुरु यदि कुछ दें तो उसे ग्रहण करना चाहिए।" उपमन्यु ने महर्षि की आज्ञा स्वीकार कर ली। अब वे भिक्षा माँगकर जो कुछ मिलता उसे गुरुदेव के सामने लाकर रख देते। गुरुदेव को तो शिष्य कि श्रद्धा को दृढ़ करना था, अत: वे भिक्षा का सभी अन्न रख लेते। उसमें से कुछ भी उपमन्यु को नहीं देते। थोड़े दिनों बाद जब गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम आजकल क्या खाते हो?" तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं एक बार की भिक्षा का अन्न गुरुदेव को देकर दुबारा अपनी भिक्षा माँग लाता हूँ।" महर्षि ने कहा- "दुबारा भिक्षा माँगना तो धर्म के विरुद्ध है। इससे गृहस्थों पर अधिक भार पड़ेगा और दूसरे भिक्षा माँगने वालों को भी संकोच होगा। अब तुम दूसरी बार भिक्षा माँगने मत जाया करो।"

उपमन्यु ने कहा- "जो आज्ञा।" उसने दूसरी बार भिक्षा माँगना बंद कर दिया। जब कुछ दिनों बाद महर्षि ने फिर पूछा, तब उपमन्यु ने बताया कि- "मैं गायों का दूध पी लेता हूँ।" महर्षि बोले- "यह तो ठीक नहीं।" गाएं जिसकी होती हैं, उनका दूध भी उसी का होता है। मुझसे पूछे बिना गायों का दूध तुम्हें नहीं पीना चाहिए।" उपमन्यु ने दूध पीना भी छोडं दिया। थोड़े दिन बीतने पर गुरुदेव ने पूछा- "उपमन्यु! तुम दुबारा भिक्षा भी नहीं लाते और गायों का दूध भी नहीं पीते तो खाते क्या हो? तुम्हारा शरीर तो उपवास करने वाले जैसा दुर्बल नहीं दिखाई पड़ता।" उपमन्यु ने कहा- "भगवान! मैं बछड़ों के मुख से जो फैन गिरता है, उसे पीकर अपना काम चला लेता हूँ।" महर्षि बोले- "बछ्ड़े बहुत दयालु होते हैं। वे स्वयं भूखे रहकर तुम्हारे लिए अधिक फैन गिरा देते होंगे। तुम्हारी यह वृत्ति भी उचित नहीं है।" अब उपमन्यु उपवास करने लगे। दिनभर बिना कुछ खाए गायों को चराते हुए उन्हें वन में भटकना पड़ता था। अंत में जब भूख असह्य हो गई, तब उन्होंने आक के पत्ते खा लिए। उन विषैले पत्तों का विष शरीर में फैलने से वे अंधे हो गए। उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता था। गायों की पदचाप सुनकर ही वे उनके पीछे चल रहे थे। मार्ग में एक सूखा कुआँ था, जिसमें उपमन्यु गिर पड़े। जब अंधेरा होने पर सब गाएं लौट आईं और उपमन्यु नहीं लौटे, तब महर्षि को चिंता हुई। वे सोचने लगे- "मैंने उस भोले बालक का भोजन सब प्रकार से बंद कर दिया। कष्ट पाते-पाते दु:खी होकर वह भाग तो नहीं गया।" उसे वे जंगल में ढूँढ़ने निकले और बार-बार पुकारने लगे- "बेटा उपमन्यु! तुम कहाँ हो?"

उपमन्यु ने कुएँ में से उत्तर दिया- "भगवान! मैं कुएँ में गिर पड़ा हूँ।" महर्षि समीप आए और सब बातें सुनकर ऋग्वेद के मंत्रों से उन्होंने अश्विनीकुमारों की स्तुति करने की आज्ञा दी। स्वर के साथ श्रद्धापूर्वक जब उपमन्यु ने स्तुति की, तब देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार वहाँ कुएँ में प्रकट हो गए। उन्होंने उपमन्यु के नेत्र अच्छे करके उसे एक पदार्थ देकर खाने को कहा। किन्तु उपमन्यु ने गुरुदेव को अर्पित किए बिना वह पदार्थ खाना स्वीकार नहीं किया। अश्विनीकुमारों ने कहा- "तुम संकोच मत करो। तुम्हारे गुरु ने भी अपने गुरु को अर्पित किए बिना पहले हमारा दिया पदार्थ प्रसाद मानकर खा लिया था।" उपमन्यु ने कहा- "वे मेरे गुरु हैं, उन्होंने कुछ भी किया हो, पर मैं उनकी आज्ञा नहीं टालूँगा।" इस गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर अश्विनीकुमारों ने उन्हें समस्त विद्याएँ बिना पढ़े आ जाने का आशीर्वाद दिया। जब उपमन्यु कुएँ से बाहर निकले, महर्षि आयोद धौम्य ने अपने प्रिय शिष्य को हृदय से लगा लिया।

महाभारत अनुशासन पर्व के दानधर्म पर्व के अंतर्गत अध्याय 14 में उपमन्यु द्वारा महादेव की तपस्या का वर्णन हुआ है

उपमन्यु द्वारा पशुपति के दर्शन का वर्णन

प्रभो! तात माधव! मैंने भी पूर्वकाल में साक्षात देवाधिदेव पशुपति का जिस प्रकार दर्शन किया था, वह प्रसंग सुनिये। भगवन! मैंने जिस उद्देश्य से प्रयत्‍नपूर्वक महातेजस्‍वी महादेव जी को संतुष्‍ट किया था, वह सब विस्‍तारपूर्वक सुनिये। अनघ! पूर्वकाल में मुझे देवाधिदेव महेश्वर से जो कुछ प्राप्‍त हुआ था, वह सब आज पूर्ण रूप से तुम्‍हें बताऊँगा। तात! पहले सत्‍ययुग में एक महायशस्‍वी ऋषि हो गये हैं,जो व्‍याघ्रपाद नाम से प्रसिद्ध थे। वे वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान थे। उन्‍हीं का मैं पुत्र हूँ। मेरे छोटे भाई का नाम धौम्‍य है। माधव! किसी समय मैं धौम्‍य के साथ खेलता हुआ पवित्रात्‍मा मुनियों के आश्रम पर आया। वहाँ मैंने देखा, एक दुधारू गाय दुही जा रही थी। वहीं मैंने दूध देखा, जो स्‍वाद में अमृत के समान होता है। तब मैंने बाल स्‍वभाव वश अपनी माता से कहा- 'मां! मुझे खाने के लिये दूध-भात दो।' घर में दूध का अभाव था, इसलिये मेरी माता को उस समय बड़ा दु:ख हुआ। माधव! तब वह पानी में आटा घोलकर ले आयी और दूध कहकर दोनों को पीने के लिये दे दिया। तात! उसके पहले एक दिन मैंने गाय का दूध पीया था। पिता जी यज्ञ के समय एक बड़े भारी धनी कुटुम्‍बी के घर मुझे ले गये थे। वहाँ दिव्‍य सुरभी गाय दूध दे रही थी। उस अमृत के समान स्‍वादिष्‍ट दूध को पीकर मैं यह जान गया था कि दूध का स्‍वाद कैसा होता है और उसकी उपलब्धि किस प्रकार होती है। तात! इसीलिये वह आटे का रस मुझे प्रिय नहीं लगा, अत: मैंने बाल स्‍वभाव वश ही अपनी माता से कहा- 'मां! तुमने मुझे जो दिया है, यह दूध-भात नहीं है।' माधव! तब मेरी माता दु:ख और शोक में मग्‍न हो पुत्रस्‍नेह वश मुझे हृदय से लगाकर मेरे मस्‍तक सूंघती हुई मुझसे बोली- 'बेटा! जो सदा वन में रहकर कन्‍द, मूल और फल खाकर निर्वाह करते हैं, उन पवित्र अन्‍त:करण वाले मुनियों को भला दूध-भात कहाँ से मिल सकता है? 'जो बालखिल्‍यों द्वारा सेवित दिव्‍य नदी गंगा का सहारा लिये बैठे हैं, पर्वतों और वनों में रहने वाले उन मुनियों को दूध कहाँ से मिलेगा? 'जो पवित्र हैं, वन में ही होने वाली वस्‍तुएं खाते हैं, वन के आश्रमों में ही निवास करते हैं, ग्रामीण आहार से निवृत होकर जंगल के फल-फूलों का ही भोजन करते हैं, उन्‍हें दूध कैसे मिल सकता है? 'बेटा! यहाँ सुरभी गाय की कोई संतान नहीं है, अत: इस जंगल में दूध का सर्वथा अभाव है। नदी, कन्‍दरा, पर्वत और नाना प्रकार के तीर्थों में तपस्‍यापूर्वक जप में तत्‍पर रहने वाले हम ऋषि-मुनियों के भगवान शंकर ही परम आश्रय हैं।
- महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 97-119

माता द्वारा शिव का वर्णन

'वत्‍स! जो सबको वर देने वाले, नित्‍य स्थिर रहने वाले और अविनाशी ईश्‍वर हैं, उन भगवान विरुपाक्ष को प्रसन्‍न किये बिना दूध-भात और सुखदायक वस्‍त्र कैसे मिल सकते हैं? 'बेटा! सदा सर्वभाव से उन्‍हीं भगवान शंकर की शरण लेकर उनकी कृपा से इच्‍छानुसार फल पा सकोगे।' शत्रुसूदन! जननी की वह बात सुनकर उसी समय मैंने उनके चरणों में प्रणाम किया और हाथ जोड़कर माता जी से यह पूछा -'अम्‍बे! ये महादेव जी कौन हैं? और कैसे प्रसन्‍न होते हैं? वे शिव देवता कहाँ रहते हैं और कैसे उनका दर्शन किया जा सकता है? मेरी मां! यह बताओं कि शिव जी का रूप कैसा है? वे कैसे संतुष्‍ट होते हैं? उन्‍हें किस तरह जाना जाये अथवा वे कैसे प्रसन्‍न होकर मुझे दर्शन दे सकते हैं?' सच्चिदानन्‍दस्‍वरूप गोविन्‍द! सुरश्रेष्‍ठ मधुसूदन! मेरे इस प्रकार पूछने पर मेरी पुत्रवत्‍सला माता के नेत्रों में आंसू भर आये। वह मेरा मस्‍तक सूंघकर मेरे सभी अंगो पर हाथ फेरने लगी और कुछ दीन-सी होकर यों बोली। माता ने कहा- जिन्‍होंने अपने मन को वश में नहीं किया है, ऐसे लोगों के लिये महादेव जी का ज्ञान होना बहुत कठिन है, उनको मन से धारण करने में आना मुश्किल है। उनकी प्राप्ति के मार्ग में बड़े-बड़े विघ्‍न हैं। दुस्‍तर बाधाएं हैं। उनका ग्रहण और दर्शन होना भी अत्‍यन्‍त कठिन है। मनीषी पुरुष कहते हैं कि भगवान शंकर के अनेक रूप हैं। उनके रहने के विचित्र स्‍थान हैं और उनका कृपा प्रसाद भी अनेक रूपों में प्रकट होता है। पूर्व काल में देवाधिदेव महादेव ने जो-जो रूप धारण किये हैं, ईश्‍वर के उस शुभ चरित्र को कौन यथार्थ रूप से जानता है? वे कैसे क्रीड़ा करते हैं और किस तरह प्रसन्‍न होते हैं? यह कौन समझ सकता है।
- महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 120-136

वे विश्वरूपधारी महेश्वर समस्‍त प्राणियों के हृदय मन्दिर में विराजमान हैं। वे भक्‍तों पर कृपा करने के लिये किस प्रकार दर्शन देते हैं? यह शंकर जी के दिव्‍य एक कल्‍याणमय चरित्र का वर्णन करने वाले मुनियों के मुख से जैसा मैंने सुना है वह बताऊँगी। वत्‍स! उन्‍होंने ब्रह्माणों पर अनुग्रह करने के लिये देवताओं द्वारा कथित जो-जो रूप ग्रहण किये हैं, उन्‍हें संक्षेप से सुनो। वत्‍स! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे हो, वे सारी बातें मैं तुम्‍हें बताऊँगी। ऐसा कहकर मा‍ता फिर कहने लगीं- भगवान शिव, ब्रह्मा, विष्‍णु, इन्‍द्र, रुद्र, आदित्‍य, अश्विनी कुमार तथा सम्‍पूर्ण देवताओं का शरीर धारण करते हैं। वे भगवान पुरुषों, देवांगनाओं, प्रेतों, पिशाचों, किरातों, शबरों, अनेकानेक जल जन्‍तुओं तथा जंगली भीलों के भी रूप ग्रहण कर लेते हैं। कूर्म, मत्‍स्‍य, शंख, नये-नये पल्‍लवों के अंकुर से सुशोभित होने वाले वसंत आदि के रूपों में भी वे ही प्रकट होते हैं। वे महादेव जी यक्ष, राक्षस, सर्प, दैत्‍य, दानव और पाताल वासियों का भी रूप धारण करते हैं। वे व्‍याघ्र, सिंह मृग, तरक्षु, रीछ, पक्षी, उल्‍लू, कुत्‍ते और सियारों के भी रूप धारण कर लेते हैं। हंस, काक, मोर गिरगिट, सारस, बगले, गीध और चक्रांग (हंसविशेष)- के भी रूप वे महादेव जी धारण करते हैं। पर्वत, गाय, हाथी, घोड़े, ऊँट और गदहे के आकार में भी वे प्रकट हो जाते हैं। वे बकरे और शार्दुल के रूप में उपलब्‍ध होते हैं। नाना प्रकार के मृगों- वन्‍य पशुओं के भी रूप धारण करते हैं तथा भगवान शिव दिव्‍य पक्षियों के भी रूप धारण कर लेते हैं। वे द्विजों के चिन्‍ह दण्‍ड, छत्र और कुण्‍ड (मण्‍डलु) धारण करते हैं। कभी छ: मुख और कभी बहुत-से मुखवाले हो जाते हैं। कभी तीन नेत्र धारण करते हैं। कभी बहुत-से मस्‍तक बना लेते हैं। उनके पैर और कटि भाग अनेक हैं। वे बहुसंख्‍यक पेट और मुख धारण करते हैं। उनके हाथ और पार्श्‍व भाग भी अनेकानेक हैं। अनेक पार्षदगण उन्‍हें सब ओर से घेरे रहते हैं। वे ऋषि और गन्‍धर्व रूप हैं। सिद्ध और चरणों के भी रूप धारण करते हैं। उनका सारा शरीर भस्‍म रमाये रहने से सफेद जान पड़ता है। वे ललाट में अर्द्धचन्‍द्र का आभूषण धारण करते हैं। उनके पास अनेक प्रकार के शब्‍दों का घोष होता रहता है। वे अनेक प्रकार की स्‍तुतियों से सम्‍मानित होते हैं, समस्‍त प्राणियों का संहार करते हैं, स्‍वयं सर्वस्‍वरूप हैं तथा सबके अन्‍तरात्‍मारूप से सम्‍पूर्ण लोकों में प्रतिष्ठित हैं। वे सम्‍पूर्ण जगत के अन्‍तरात्‍मा, सर्वव्‍यापी और सर्ववादी हैं, उन भगवान शिव को सर्वत्र और सम्‍पूर्ण देहधारियों के हृदय में विराजमान जानना चाहिये। जो जिस मनोरथ को चाहता है और जिस उद्देश्‍य से उसके द्वारा भगवान की अर्चना की जाती है, देवेश्‍वर भगवान शिव वह सब जानते हैं। इसलिये यदि तुम कोई वस्‍तु चाहते हो तो उन्‍हीं की शरण लो। वे कभी आनन्दित रहकर आनन्‍द देते, कभी कुपित होकर कोप प्रकट करते ओर कभी हुंकार करते हैं, अपने हाथों में चक्र, शूल, गदा, मूसल, खड्ग और प‍ट्टीश धारण करते हैं। वे धरणीधर शेषनाग रूप हैं, वे नाग की मेखला धारण करते हैं। नागमय कुण्‍डल से कुण्‍डलधारी होते हैं। नागों का ही यज्ञोपवीत धारण करते हैं तथा नागचर्म का ही उत्‍तरीय (चादर) लिये रहते हैं।
- महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 137-155

उपमन्यु द्वारा महादेव की तपस्या

वे अपने गणों के साथ रहकर हंसते हैं, गाते हैं, मनोहर नृत्‍य करते हैं और विचित्र बाजे भी बजाते हैं। भगवान रुद्र उछलते-कूदते हैं। जंमाई लेते हैं। रोते हैं, रूलाते हैं। कभी पागलों और मतवालों की तरह बातें करते हैं और कभी मधुर स्‍वर से उत्‍तम वचन बोलते हैं। कभी भयंकर रूप धारण करके अपने नेत्रों द्वारा लोगों में त्रास उत्‍पन्‍न करते हुए जोर-जोर से अट्टाहस करते, जागते, सोते और मौज से अंगड़ाई लेते हैं, वे जप करते हैं और वे ही जपे जाते हैं, तप करते हैं और तपे जाते हैं वे दान देते और दान लेते हैं तथा योग और ध्‍यान करते हैं। यज्ञ की वेदी में, यूप में, गौशाला में तथा प्रज्‍वलित अग्नि में वे ही दिखायी देते हैं। बालक, वृद्ध और तरुण रूप में भी उनका दर्शन होता है। वे ऋषिकनयाओं तथा मुनिपत्नियों के साथ खेला करते हैं। कभी उर्ध्‍वकेश , कभी महालिंग, कभी नंग-धड़ंग और कभी विकराल नेत्रों से युक्‍त हो जाते हैं। कभी गोरे, कभी सांवले, कभी काले, कभी सफेद कभी धूएं के समान रंग वाले एवं लोहित दिखायी देते हैं। कभी विकृत नेत्रों से युक्‍त होते हैं। कभी सुन्‍दर विशाल नेत्रों से सुशोभित होते हैं। कभी दिगम्‍बर दिखायी देते हैं और कभी सब प्रकार के वस्‍त्रों से विभूषित होते हैं। वे रूपरहित हैं। उनका स्‍वरूप ही सबका आदिकरण है। वे रूप से अतीत हैं। सबसे पहले जिसकी सृष्टि हुई है जल उन्‍हीं का रूप है। इन अजन्‍मा महादेव जी का स्‍वरूप आदि-अन्‍त से रहित है। उसे कौन ठीक-ठीक जान सकता है। भगवान शंकर प्राणियों के हृदय में प्राण, मन एवं जीवात्‍मा रूप से विराजमान हैं। वे ही योगस्‍वरूप, योगी, ध्‍यान तथा परमात्‍मा हैं। भगवान महेश्‍वर भक्तिभाव से ही गृहीत होते हैं। वे बाजा बजाने वाले गीत गाने वाले हैं। उनके लाखों नेत्र हैं। वे एकमुख, द्विमुख, त्रिमुख और अनेक मुखवाले हैं। बेटा! तुम उन्‍हीं के भक्‍त बनकर उन्‍हीं में आसक्‍त रहो। सदा उन्‍हीं पर निर्भर रहो और उन्‍हीं के शरणागत होकर महादेव जी का निरन्‍तर भजन करते रहो। इससे तुम्‍हें मनोवांछित वस्‍तु की प्राप्ति होगी। शत्रुसूदन श्रीकृष्‍ण! माता का वह उपदेश सुनकर तभी से महादेव जी के प्रति मेरी सुदृढ़ भक्ति हो गयी। तदनन्‍तर! मैंने तपस्‍या का आश्रय ले भगवान शंकर को संतुष्‍ट किया। एक हजार वर्ष तक केवल बायें पैर के अंगुठे के अग्रभाग के बल पर मैं खड़ा रहा। पहले तो एक सौ वर्षों तक मैं फलाहारी रहा। दूसरे शतक में गिरे-पड़े सूखे पत्‍ते चबाकर रहा और तीसरे शतक में केवल जल पीकर ही प्राण धारण करता रहा। फिर शेष सात सौ वर्षों तक केवल हवा पीकर रहा। इस प्रकार मैंने एक सहस्‍त्र दिव्‍य वर्षों तक उनकी आराधना की। तदनन्‍तर सम्‍पूर्ण लोकों के स्‍वामी भगवान महादेव मुझे अपना अनन्‍य भक्‍त जानकर संतुष्‍ट हुए और मेरी परीक्षा लेने लगे। उन्‍होनें सम्‍पूर्ण देवताओं से घिरे हुए इन्‍द्र का रूप धारण करके पदार्पण किया। उस समय उनके सहस्‍त्र नेत्र शोभा पा रहे थे। उन महायशस्‍वी इन्‍द्र के हाथ में वज्र प्रकाशित हो रहा था।
- महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 156-172

वे भगवान इन्‍द्र लाल नेत्र और खड़े कान वाले, सुधा के समान उज्‍जवल, मुड़ी हुई सूंड से सुशोभित, चार दांतों से युक्‍त ओर देखने में भयंकर मद से उन्‍मत महान गजराज ऐरावत की पीठ पर बैठकर अपने तेज से प्रकाशित होते हुए वहाँ पधारे। उनके मस्‍तक पर मुकुट, गले में हार और भुजाओं में केयूर शोभा दे रहे थे। सिर पर श्‍वेत छत्र तना हुआ था। अप्‍सराएं उनकी सेवा कर रही थीं और दिव्‍य गन्‍धर्वों के संगीत की मनोरम ध्‍वनि वहाँ सब ओर गूंज रही थी।
- महाभारत अनुशासन पर्व अध्याय 14 श्लोक 173-188

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Deepak Kamboj

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Deepak Kamboj started and conceptualized the powerful interactive platform - KambojSociety.com in September 2002, which today is the biggest and most popular online community portal for Kambojas in the world. He was inspired by the social and community work carried out by his father Shri Nanak Chand Kamboj. He has done research on the history, social aspects, political growth and economical situation of the Kamboj community. Deepak Kamboj is an author of various articles about the history of Kamboj community and people.